हीटवेव प्राकृतिक प्रकोप या मानव निर्मित आपदा : मीणा

लेखक : राम भरोस मीणा
पर्यावरणविद् एवं समाज विज्ञानी है।
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बड़ते तापघात के साथ चलते हीटवेव ने अप्रेल महा के दुसरे सप्ताह से अपने तेवरों को दिखाना शुरू कर दिया, ख़ास बात यह है कि जो तापमान मई के अंतिम दिनों में होता, उसे एक महीने पहले सहना पड़ रहा है, वह भी हीटवेव के साथ। आखिर क्यों ? क्या खास बात है। कहीं यह प्रकृति के रूष्ट होने से तों नहीं, या विकास की अवधारणा के चलते हुए प्राकृतिक संसाधनों के शौषण का परिणाम। खैर जो भी है, समय रहते सचेत जरुर कर रहा है। अब चाहे प्राकृतिक संसाधनों के शौषण से उपजी आपदा हों या प्रकृति द्वारा संतुलन बनाए रखने का एक संकेत।
हीटवेव एवं तापघात को देखते हुए वर्तमान समय में प्रत्येक व्यक्ति कहने लगा, इस साल गर्मियां जल्दी शुरू हो गई, मई जून में क्या हालात होंगें ? पश्चिमी राजस्थान में तापमान लगभग 46 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया है, पुर्वी राजस्थान के भरतपुर में यह 43 डिग्री पहुंच गया, मौसम में आएं बदलाव से जनजीवन प्रभावित हुआ है, वन्य जीव पानी के लिए भटकनें लगें हैं, पैदावार में गिरावट आई है, पेड़ पौधे, बाग़ बगीचे मुरझाने लगे हैं। जागरूक चिंतन करने लगे, अनजान गाल बजाने लगे हैं। प्रकृति के खिलाफ नितियां बनाने वाले बेशक चिंतित नहीं दिखाई दे रहे, लेकिन देखा यह भी जा रहा है कि चिंता सभी की बढ़ रही है। हालातों को देखते जून के महिने में तापमान 50 डिग्री सेल्सियस के उपर पहुंचने में कोई शक नहीं होना चाहिये।
रेगिस्तानी इलाकों में तापमान हमेशा अधिक रहता है, हीटवेव भी चलती है। वहां की वनस्पतियां, वन्यजीव, मानव, पशु-पक्षी उन विपरीत परिस्थितियों में अपने को अनुकूल बनानें में सक्षम है, और रहें हैं। कम पानी, कम वर्षा, कम वनस्पति, उड़ती रेत, धुल भरी आंधी-तूफान, कड़ाके की सर्दी और तेज़ सुर्य का ताप, पैदावारी भी ना के बराबर, पशु पालन ही आधार, फिर भी “जीवन ख़ुशहाल”। लेकिन यहां विकास के नाम पर चलीं आरी ने भ्रम में डाल दिया, वे अपनी व्यवस्थाओं, मान्यताओं, परम्पराओं को भुल भुलाकर राज्य पेड़ खेजड़ी जिस को बचाने के लिए अपना बलिदान दिया था, उसी के लगभग 25 लाख पेड़ तीन साल में कटा दिये, ओरण, देव बनीं, गौचर भूमि, जोहड़, नालों के वृक्षों, झाड़ियों को हटाकर सुनसान इलाके में तब्दील कर सोलर प्लांट लगा दिया, नतीजन विशेषज्ञों का कहना है यहां एका एक औसतन तापमान में 4 – 5 डिग्री सेल्सियस वृद्धि की सम्भावना बन गई है।
पूर्वी राजस्थान में अरावली पहाड़ियां नग्न पर्वत में तब्दील होती जा रही है, पिला पंजा उन्हें नष्ट करने में लगा है। रिजर्व क्षेत्रों में भी आरी चलतीं देख सकते हैं, हर साल लाखों पेड़ विकास के नाम पर बली चढ़ाएं जा रहें हैं, औसतन वनों का प्रतिशत कम होता जा रहा है, दुसरे ग्लोबल वार्मिंग, बड़ते शहरीकरण, ग्रीनहाउस गैसों का बढ़ने से तापघात से बचना बड़ी “टेढ़ी खीर” साबित होता दिखाई दे रहा है। विकासवाद, पूंजीवाद, भोगवाद, भौतिकवाद और चाहे जो वाद हों, इनके चरम सीमा पर पहुंचने से विश्व की बड़ी बड़ी सभ्यताएं नष्ट हो गई, सिंधु घाटी सभ्यताएं भी नष्ट हुई जों आज के विकास से कहीं बेहतर थी। उड़न खटोले और उड़न परी कथा आज भी सुनते ही, अग्नि बाण, शब्दभेदी बाण बहुत पहले बन चुकें जहां तक आज का विज्ञान शाय़द पहुंच नहीं पाया।
खैर मानव स्वभाव है, मानव श्रेष्ठ है, विकास के साथ यह अपने को भौतिक सुख, सुविधाओं और भोगवाद से दूर नहीं रख सकता, प्रकृति भी इसे सहन नहीं कर सकतीं। जब दोनों में प्राकृतिक और मानव के बीच संतुलन नहीं रहता तब विकास विनाश में तब्दील हो चुका होता है, वहीं से एक नई सभ्यता का प्रारम्भ होना शुरू हो जाता है, और वें संकेत प्रकृति ने उजड़ते जंगलों, मिटते पहाड़ों, खत्म होती नदियों, पिघलाते ग्लेशियरों, बड़ते तापघात के साथ देना शुरू कर दिया है और इसका जिम्मेदार स्वमं विकासवाद है जो मानव निर्मित बगैर सोचे-समझे विकास का परिणाम है।
समय रहते प्रकृति के साथ छेड़छाड़ बन्द करना होगा, जनसंख्या के अनुपात में ग्रीन लेंड तैयार करनी होगी, नदी नालों, गौचर भूमि को संरक्षण देना होगा, बढ़ते कार्बन उत्सर्जन पर काबू पाना होगा तब ही हम वर्तमान सभ्यता को बचाने में कामयाब हो सकेंगे अन्यथा प्रकृति स्वमं कंट्रोल करने में सक्षम है लेकिन उसका खामियाजा आम आदमी को अधिक भुगतान पड़ सकता है। अतः हमें प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण में योगदान देने, अधिक से अधिक वृक्षारोपण करने, जल संरक्षण के कामों में जुटने का उपयुक्त समय है जों करना चाहिए। (लेखक के अपने निजी विचार है।

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