बाप की पीड़ा समझे ना कोई..( 2 )

लेखक वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं पर्यावरणविद है
www.daylifenews.in
… मैंने कल बाप की पीड़ा के संदर्भ में बाप की विवशता के बारे में आपको जानकारी दी थी। इस सवाल पर
कई लोगों की टिप्पणी आईं और
कई लोगों के फोन आये। अधिकांश मेरे कथन से सहमत थे। लेकिन उनका यह भी कथन था कि आखिर हम जायें तो जायें कहां? हमने दे तो उनको सबकुछ दिया,अब हमारे पास कुछ बचा ही नहीं है। अब हमें कौन गले लगायेगा? सच तो यह है कि आखिर वे हैं तो हमारी संतान ही। उनके ही साथ मरना है और उनके ही साथ जीना है। भले वह हमें दुत्कारें, आखिर मरने के बाद भी तो सब कुछ उनका ही है। हम क्या उसे अपने साथ ले जायेंगे। यह भारतीय पुरातन मानसिकता है। यहां अपमान, घृणा और प्रताड़ना को ऐसी मानसिकता वाले अपनी नियति मान लेते हैं। ऐसे लोगों के बारे में क्या कहना।
इसके विपरीत अधिकांश लोगों की स्पष्ट राय है कि संतान के साथ घुट-घुटकर जीने से अच्छा है कि हम अपनी मर्जी से जियें। जब संतान हमें बोझ समझे, हमको अपने साथ रखना अपमान और स्तर की दृष्टि से हमें हेय समझे, ऐसी स्थिति में हमें खुद उनसे अलग होकर अपनी राह तय करनी चाहिए। इसमें एक समस्या यह है कि ऐसा तभी संभव है जबकि माता-पिता उनपर आश्रित न हों और वह आर्थिक दृष्टि से संपन्न हों। जहां तक वृद्धाश्रम का सवाल है,अधिकांश की स्थिति काफी दयनीय है। अक्सर उनके बारे में खबरें अखबारों की सुर्खियां बनती रहती हैं। सरकारी स्तर पर साधनहीन निराश्रित वृद्धों के लिये व्यवस्था कहने भर को हैं और एनजीओ के स्तर पर जो वृद्धाश्रम हैं वे एकाध अपवाद को छोड़कर सारे के सारे धंधेबाजों के कब्जे में हैं। उनमें वे किस तरह अपनी जिंदगी गुजारते हैं,वह किसी से छिपा नहीं है। वहां रहना उनकी मजबूरी है क्योंकि उनका कोई पुरसाहाल ही नहीं है।
वे लोग जो यह कहते हैं कि हम संतान के साथ विवशता में क्यों रहें,क्यों उनके ताने सुनें, घुटन में क्यों जियें। इसका सबसे बड़ा कारण एक तो वे आर्थिक रूप से संपन्न हैं, अच्छी-खासी उनको पेंशन मिलती है या फिर वे बड़े पदों पर रहे हैं,उनकी जीवन शैली विशिष्टता से पूर्ण रही है,ऐसे बुजुर्ग लोग वृद्धाश्रम तो कतई नहीं जाते। वे बड़े बड़े बिल्डरों द्वारा बनवाये आरामगाह,जी हां उनको आरामगाह ही कहना उचित होगा, वहां रहना ज्यादा मुनासिब समझते हैं। ऐसे लोगों का मानना है कि वहां हमारे ऊपर ना तो संतान की कोई बंदिश है,ना चिक चिक और ना ही खाने-पीने की कोई समस्या। वहां हमें खुले माहौल में रहने सहने के लिए आरामदायक कमरे, ए सी, स्वच्छ वातावरण और समय पर नाश्ता- भोजन मिलता है। सबसे बड़ी बात वहां उनके ही स्तर के लोग उन्हें मिलते हैं जिनके बीच वे मिल बैठकर अपनी शामें बिताते हैं। खास बात यह कि वहां उन्हें कोई रोकटोक करने वाला नहीं होता और जब चाहें वे वहां से घूमने- सैर करने भी चले जाते हैं। वहां बस हमें पैसा देना होता है। उनका मानना है कि हम बच्चों के मामले में दखलंदाजी क्यों करें। उनकी शादी कर दी।अब उनकी भी अपनी जिंदगी है। वे मौज करें,अपनी जिंदगी का लुत्फ उठायें जो चाहें खायें-पियें,जहां चाहें घूमें-फिरें। हम उन्हें क्यों रोकें। हम अलग,वे अलग। आखिर उनको भी अपनी मर्जी से जीने का हक है। अब सवाल ये है कि ऐसे लोगों की तादाद कितनी है। अधिकांश वे हैं जो अपने जीवन में ही अपना सब कुछ संतान को दे देते हैं और बुढापे में संतान के कोप के शिकार हो दानेदाने को मोहताज हो रोटी के लिए दरदर भटकने को मजबूर होते हैं। कल कुछ और (जारी)….. (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *