भारत का परंपरागत जल दिवस भी है अक्षय तृतीया : अरुण तिवारी

लेखक : अरुण तिवारी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं जाने-माने पर्यावरण विज्ञानी हैं।
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अक्षया तृतीया, अबूझ मुहूर्त का दिन है। इस दिन बिना पूछे कोई भी शुभ काम किया जा सकता है। पानी प्रबंधन की भारतीय परम्परा इस दिन का उपयोग पुरानी जल संरचनाओं को झाङ-पोछकर दुरुस्त करने और प्याऊ लगाने
में करती रही है।
गौर करने की बात है कि नदी, समुद्र, बादल, जलाश्य आदि के प्रति अपने दायित्वों को याद करने का भारत का तरीका श्रमनिष्ठ रहा है। हम इन्हे पर्वों का नाम देकर क्रियान्वित करते जरूर रहे हैं, किंतु उद्देश्य भूलने की मनाही हमेशा रही .
भारतीय जल दिवस-एक
भारतीय पंचाग के मुताबिक पहला जलदिवस है -देवउठनी ग्यारस….देवोत्थान एकादशी! चतुर्मास पूर्ण होने की तारीख। जब देवता जागृत होते हैं। यह तिथि कार्तिक मास में आती है। यह वर्षा के बाद का वह समय होता जब मिट्टी नर्म होती है। उसे खोदना आसान होता है। नई जल संरचनाओं के निर्माण के लिए इससे अनुकूल समय और कोई नहीं। खेत भी खाली होते हैं और खेतिहर भी। तालाब, बावङियां, नौळा, धौरा, पोखर, पाइन, जाबो, कूळम, आपतानी – देशभर में विभिन्न नामकरण वाली जलसंचयन की इन तमाम नई संरचनाओं की रचना का काम इसी दिन से शुरू किया जाता था। राजस्थान का पारंपरिक समाज आज भी देवउठनी ग्यारस को ही अपने जोहङ, कुण्ड और झालरे बनाने का श्रीगणेश करता है।
भारतीय जल दिवस-दो
भारतीय पंचाग का दूसरा जल दिवस है-आखा तीज! यानी बैसाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि। यह तिथि पानी के पुराने ढांचों की साफ-सफाई तथा गाद निकासी का काम की शुरुआत के लिए एकदम अनुकूल समय पर आती है। बैसाख आते-आते तालाबों में पानी कम हो जाता है। खेती का काम निपट का होता है। बारिश से पहले पानी भरने के बर्तनों को झाङ-पोछकर साफ रखना जरूरी होता है। हर वर्ष तालों से गाद निकालना और टूटी-फूटी पालों को दुरुस्त करना। इसके जरिए ही हम जलसंचयन ढांचों की पूरी जलग्रहण क्षमता को बनाये रख सकते हैं। ताल की मिट्टी निकाल कर पाल पर डाल देने का यह पारंपरिक काम अब नहीं हो रहा।
नतीजा ?
इसी अभाव में हमारी जलसंरचनाओं का सीमांकन भी कहीं खो गया है… और इसी के साथ हमारे तालाब भी।
बैसाख-जेठ में प्याऊ-पौशाला लगाना पानी का पुण्य हैं। खासकर, बैसाख में प्याऊ लगाने से अच्छा पुण्य कार्य कोई नहीं माना गया। इसे शुरू करने की शुभ तिथि भी आखातीज ही है।
लेकिन अब तो पानी का शुभ भी व्यापार के लाभ से अलग हो गया है। भारत में पानी अब पुण्य कमाने का देवतत्व नहीं, बल्कि पैसा कमाने की वस्तु बन गया है। 50-60 फीसदी प्रतिवर्ष की तेजी से बढता कई हजार करोड़ का बोतलबंद पानी व्यापार! शुद्धता के नाम पर महज एक छलावा मात्र!!
यदि बारिश के आने से पहले तालाब-झीलों को साफ कर लें। खेतों की मेङबंदियां मजबूत कर लें ; ताकि जब बारिश आये तो इन कटोरे में पानी भर सके। वर्षा जल का संचयन हो सके। धरती भूखी न रहे। ना संकल्प, जल दिवस अधूरा.
जहां तक संकल्पों का सवाल है। हर वह दिवस, हमारा जल दिवस हो सकता है, जब हम संकल्प लें – ’’बाजार का बोतलबंद पानी नहीं पिऊंगा। कार्यक्रमों में मंच पर बोतलबंद पानी सजाने का विरोध करुंगा। अपने लिए पानी के न्यूनतम व अनुशासित उपयोग का संयम सिद्ध करुंगा। दूसरों के लिए प्याऊ लगाउंगा।… मैं किसी भी नदी में अपना मल-मूत्र-कचरा नहीं डालूंगा। नदियों के शोषण-प्रदूषण-अतिक्रमण के खिलाफ कहीं भी आवाज उठेगी या रचना होगी, तो उसके समर्थन में उठा एक हाथ मेरा होगा।’’
हम संकल्प कर सकते है कि मैं पाॅलीथीन की रंगीन पन्नियों में सामान लाकर घर में कचरा नहीं बढाऊंगा। मै हर वर्ष एक पौधा लगाऊंगा भी और उसका संरक्षण भी करुंगा।
उत्तराखण्ड में ’’मैती प्रथा’’ है। मैती यानी मायका। लङकी जब विवाहोपरान्त ससुराल जाती है, तो मायके से एक पौधा ले जाकर ससुराल में रोप देती है। वह उसे ससुराल में भी मायके की याद दिलाता है। वह दिन होता है उत्तराखण्ड का पर्यावरण दिवस।
दुनिया को बताना जरूरी है कि हम अंतरराष्ट्रीय जल दिवस मनायेंगे जरूर, लेकिन भारत के प्राकृतिक संसाधन अंतर्राष्ट्रीय हाथों में देने के लिए नहीं, बल्कि उसकी हकदारी और जवाबदारी.. दोनो अपने हाथों में लेने के लिए। भारत की दृष्टि से विश्व जल दिवस का महत्व यह भी हैं कि इस बहाने हम आने वाले भारतीय जल दिवस को भूलें नहीं। उसकी तैयारी में जुट जायें। इस नवरात्र में एक नया संकल्प करें। याद रहे कि संकल्प का कोई विकल्प नहीं होता और प्रकृति के प्रति पवित्र संकल्पों के बगैर किसी जल दिवस को मनाने का कोई औचित्य नहीं। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)

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