सूनापन जाए तो सोऊँ, यह उलझन जाए तो सोऊँ : डॉ. तारा प्रकाश जोशी

स्मृति शेष: गीतकार डॉ. तारा प्रकाश जोशी ( पुण्यतिथि 6 अक्टूबर)

लेखक : वेदव्यास
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार व पत्रकार हैं
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डॉ. तारा प्रकाश जोशी (87) मेरी जीवन यात्रा के एक ऐसे आख्यान हैं, जिन्हें मैं कभी भुला नहीं सकता। जब वो आज हमारे बीच नहीं हैं, तो मैं अपने दुख और अकेलेपन को राहत देने के लिए उनसे जुड़ी कुछ बातें याद कर रहा हूं। वो उम्र में, अनुभव में, अध्ययन में और सृजन में मुझसे बहुत आगे थे। मैं 1971 में आकाशवाणी जयपुर में, अनुबंध कलाकार के रूप में काम करता था और कलाकारों की बंधुआ मजदूरी को लेकर न्याय और अधिकारों को लेकर धरने- प्रदर्शन और नारेबाजी किया करता था। मजदूर संगठन ‘ऐटक‘ से जुड़े आकाशवाणी कलाकार संघ का अध्यक्ष था। यहीं पर शांति भंग की आशंका को लेकर आकाशवाणी प्रशासन, प्रायः पुलिस को बुलाया करता था और तारा प्रकाश जोशी नगर दंडनायक के रूप में वहां आया-जाया करते थे। यहीं से मेरी उनकी दोस्ती शुरू हुई थी।
इसी दौर में बांदा (उत्तरप्रदेश) के प्रगतिशील लेखक सम्मेलन के बाद भरतपुर में भी प्रगतिशील लेखक संघ का सम्मेलन आयोजित हुआ था। तारा प्रकाश जोशी उसके संयोजक थे और डॉ. जगतपाल सिंह सह-आयोजक थे। तारा प्रकाश जोशी के आग्रह पर मैं भी उनके साथ काव्य पाठ के लिए तब भरतपुर गया था। वहीं पर 1973 में राजस्थान के लिए प्रगतिशील लेखक संघ का मुझे प्रथम संगठन संयोजक बनाया गया था। मेरा नाम तारा प्रकाश जोशी ने ही प्रस्तावित किया था।
तारा प्रकाश जोशी के साथ मेरी यह सहयात्रा किस तरह देश में प्रगतिशील साहित्य चेतना की मशाल बनी, उस इतिहास को हमारी पुरानी पीढ़ी अधिक और नई पीढ़ी कम जानती है। विगत को याद करते हुए-आज 53 साल बाद मुझे लगता है कि शायद हम दोनों ही एक-दूसरे के लिए बने थे। हमारे सामाजिक सरोकार ही हमें जोड़ते थे और हमारी चुनौतियां ही हमें विश्वसनीय बनाती थीं। ये ही समय था जब भारत की सभी भाषाओं में लोकतंत्र, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता का परचम-प्रगतिशील साहित्य चेतना से ओत-प्रोत था। 1936 से लेकर 2020 तक की ये सरगर्मी बताती है कि आज प्रगतिशील चेतना का संघर्ष आसमान से जमीन पर आ गया है और भारतीय भाषा, साहित्य और संस्कृति का प्रगतिशील सपना एक नए वैश्विक-सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक पराभाव और दमन से गुजर रहा है।
राजस्थान में तारा प्रकाश जोशी और प्रगतिशील लेखक संघ आज इसीलिए मुझे प्रासंगिक लगते हैं क्योंकि समाज में अब विघटनकारी ताकतों का बोलबाला है। विचार केंद्रित सभी आवाजें बुझ गई हैं तो, संघर्ष का स्थान लेखक के जीवन को सरकार और बाजार के समझौतों में धकेल रहा है। हम अपने जीते जी ही अप्रासंगिक हो रहे हैं। ये समय मुझे अनिवार्यता और मुखरता की याद दिलाता है। हम दोनों ने अपना दायित्च इस तरह बांटकर आगे बढ़ाया था कि तारा प्रकाश जोशी तो श्रेष्ठ सृजन की पाठशाला चलाते थे और मैं कुशल संगठन संयोजक का कर्तव्य निभाता था। हम दोनों की इस जुगलबंदी का ही परिणाम था कि कभी राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़कर ही लेखक अपने का सम्पूर्ण मानता था। सैकड़ों कलम के सिपाही इस विचारधारा की मुहिम में बनते, उठते, लड़ते और बढ़ते मैंने देखे हैं। 1973 से 2020 तक ही हमारी साझा समझ से नई पीढ़ी को ये आग्रह करना चाहता हूं कि अब हम साहित्य, समाज और समय की नई आपदाओं को समझें और सृजन के पुनर्जागरण को नई आवाज दें।
तारा प्रकाश जोशी मेरे ऐसे साथी और सलाहकार थे जिन्होंने कभी किसी सम्मान, पुरस्कार, अनुदान के लिए कहीं आवेदन नहीं किया और हम लोगों ने भी कभी उनके सृजनधर्म का मूल्यांकन नहीं किया है। जोशी जी की पूरी काव्य चेतना के लिए उनका अंतिम गीत संग्रह ‘प्रत्यूष की पदचाप‘ भी यदि आप पढ़ सकें तो मेरा अनुरोध सार्थक बन जाएगा। तारा प्रकाश बेहद सहज, सरल और निर्भीक फकीर-दार्शनिक की तरह चलते-फिरते थे। तारा प्रकाश जोशी हिंदी के गीत साहित्य में परम्परा के परिष्कृत रचनाकार थे और गीतकारों को बहुत प्रेम करते थे। नई कविता की छंद मुक्त रचनाकारों के प्रति वो उत्साहित नहीं थे। छल-बल और तिकड़बाजी से दूर रहकर, वे जीवन और जगत के सम-सामयिक व्याख्याकार गीतकार थे। गीत के प्रति उनकी ईमानदारी और मनुष्य की उदासी का संघर्ष उन्हें आज भी स्मरणीय बनाता है। उन्होंने अपने प्रचार-प्रसार के लिए कभी कोई आयोजन-प्रायोजन नहीं करवाया और नई पीढ़ी को सदैव प्रोत्साहित किया।
जोशी जी 25 जनवरी, 1933 को जोधपुर में जन्में और 6 अक्टूबर, 2020 को जयपुर में दिवंगत हुए। वे मुझसे 8 साल बड़े थे और जयपुर के गुरु कमलाकर के साहित्य सदावर्त और डॉ. हरिराम आचार्य को अपना पारखी मानते थे और रांगेय राघव पर केंद्रित उनका मानवतावाद से प्रेरित शोध प्रबंध पढ़ने का आग्रह करते थे। आप उनको अन्य पुस्तकें-कल्पना के स्वर, शंखों के टुकड़े, समाधि के प्रश्न, जलते अक्षर, जयनाथ (उपन्यास), द्वापर के आंसू, त्रेता का परिताप, जल मृग जल (नाटक) तथा दूधां (राजस्थानी नाटक) भी यदि पढ़ सकें तो आभार मानूंगा।
डॉ. तारा प्रकाश जोशी को राजस्थान की प्रगतिशील साहित्य की परम्परा का आधुनिक प्रतिनिधि गीतकार समझते हुए इस संक्षिप्त स्मरण में मैं फिर ये ही कहूंगा कि-हम अपने अंग्रेजों को भुलाने की आदत से बाहर आएं क्योंकि साहित्य की उत्कृष्टता को भूलकर हम कहीं अपनी श्रेष्ठता को भी नकार रहे हैं। राजस्थान में आज भी जोशी जी सबके प्रिय और सुमधुर गीतकार के रूप में स्थापित हैं। राजस्थान साहित्य अकादमी ने 2012-13 में उन्हें अपना सर्वोच्च सम्मान ‘साहित्य मनीषी‘ देकर एक बार फिर ये प्रमाणित किया है कि हमारी काव्य परम्परा ही आने वाले समाज की प्रेरणा बनेगी। उनकी-मेरी जुगलबंदी ये थी कि -मेरे पांव तुम्हारे गति हो, फिर चाहे जो भी परिणति हो। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)

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