विचार क्रांति के अग्रदूत भगत सिंह : वेदव्यास

23 मार्च भगत सिंह शहादत दिवस पर विशेष
लेखक : वेदव्यास
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार व पत्रकार हैं
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आज जब मैं अपने भारत के इतिहास को दोहराते हुए देखता हूं तो मुझे बचपन की वे सभी आवाजें सुनाई पड़ती हैं जो अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होने की जिद और जुनून में, केवल एक बार मरती हैं लेकिन कायर जनता, हर रोज, हर बार मरती है। भारत का स्वतंत्रता संग्राम आज भी इस बात का गवाह है कि आजादी की लड़ाई में भगत सिंह का स्थान आज युवा पीढ़ी के लिए सबसे अधिक आकर्षण और रोमांच पैदा करने वाला है। भगत सिंह इस दौर के एक मात्र ऐसे उदाहरण हैं जो 1930 में आजादी मिलने के पहले ये कहा करते थे कि मेहनतकश जनता को इस आजादी से कुछ भी नहीं, मिलने वाला है। ऐसे में, आज के भारत को, भगत सिंह बहुत याद आते हैं। भगत सिंह हमारी आजादी के संघर्ष में एक ऐसे प्रकाश स्तंभ थे जो कहा करते थे कि क्रांति का इस सदी में केवल एक ही अर्थ हो सकता है कि जनता के लिए जनता द्वारा स्थापित जनता का शासन। 20वीं शताब्दी के अंधेरे में जब हम आज 21वीं शताब्दी की परिस्थिति को देखते हैं तो पता चलता है कि भगत सिंह की समझ तब कितनी वैज्ञानिक और ऐतिहासिक विश्लेषण से भरपूर थी। आपको आश्चर्य होगा कि 28 सितंबर, 1907 को अविभाजित पंजाब के अपने गांव से लेकर 23 मार्च, 1931 की लाहौर तक की, जीवन यात्रा भगत सिंह की महज 23 वर्ष की कहानी है। आप और हम आज इसीलिए सोचते हैं कि क्रांति की कोई उम्र नहीं होती और शहादत का कोई समय नहीं होता। क्योंकि युद्ध अभी जारी है। भगत सिंह की याद आज 94 साल बाद भी हमें बताती है कि भगत सिंह की शहादत (1931) और महात्मा गांधी की शहादत (1948) में क्या अंतर है और एक शहीद तथा एक राष्ट्रपिता होने तक का ये गौरव कितना प्रेरणादायक है। क्योंकि भगत सिंह और महात्मा गांधी के जन्म दिन कुछ दिनों के आगे पीछे आते हैं। इसीलिए मैं आज अपनी बात को भगत सिंह पर केंद्रीत करते हुए कहना चाहूंगा कि ये दोनों महान व्यक्ति एक दूसरे के परस्पर पूरक थे क्योंकि इन दोनों के संघर्ष का एक ही लक्ष्य था कि देश को आजादी मिलनी चाहिए। इतिहास ने अपने-अपने आग्रह-पूर्वाग्रहों को लेकर जहां गांधी को, भगत सिंह और आंबेडकर के विपरीत बताया है तथा नेहरू को सरदार पटेल से आमने-सामने रखा, वहां गांधी और सुभाष चंद्र बोस को लेकर भी अलग-अलग व्याख्याएं की हैं। लेकिन अब हम आजादी के 77 साल बाद का अनुभव लेकर केवल ये ही कहना चाहते हैं कि स्वतंत्रता संग्राम के कोई 200 से अधिक वर्ष हमारी विविधता में एकता की शक्ति है, क्योंकि इसमें आजादी का संकल्प ही सबको जोड़ता है।
मेरी समझ है कि महाभारत के सभी पर्व और रामायण के सभी कांड मिलाकर ही संघर्ष की एकजुट संस्कृति को बनाते हैं इसीलिए मुझे लगता है कि भगत सिंह और गांधी की या किसी अन्य की तुलना एक वैचारिक रणनीति तो हो सकती है, लेकिन देश भक्ति से किसी को ओझल नहीं बना सकती। अतः आजादी के दीवानों को नरम दल और गरम दल में बांटना भी गलत है। 23 मार्च, 1931 को जब भगत सिंह लाहौर जेल की अपनी काल कोठरी में बोलशेविक क्रांति के जनक लेनिन की जीवन पढ़ रहे थे तब जेलर ने आकर उनसे कहा कि भगत सिंह! तुम्हारी फांसी का आदेश आ गया है तुम अपने ईश्वर को याद कर लो। तब भगत सिंह ने ये ही कहा था कि ठहरो! अभी एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी को पढ़ रहा है। इसके बाद भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी देने की कहानी तो भारत की, तीन पीढ़ियों को आज भी याद है। ऐसे में समझने की बात ये है कि हर शासन व्यवस्था अपने समय की न्याय मांगने वाली आवाज को अक्सर आतंकवादी, नक्सलवादी, अराजकतावादी और देशद्रोही कहकर दबाती है, बदनाम करती है और यातनाएं देती है। इसीलिए अंग्रेजों ने कभी भगत सिंह को देश विरोधी बताया था और 2022 में भी आज शासन-प्रशासन, न्याय और आजादी की मांग करने वालों को देशद्रोही, आतंकवादी तथा नक्सलवादी बताकर देशद्रोही बताता है। शासन के इसी सत्ता चरित्र को भगत सिंह ने कभी ललकारा था।
भगत सिंह इसीलिए कहते थे कि संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, धर्म या राष्ट्र के हों, सभी का ये अधिकार और कर्तव्य हैं कि वे सभी भेदभाव भुलाकर न्याय के लिए एक हो जाएं। दुनिया के मजदूरों-किसानों, एक हो, ये नारा इसी न्याय का प्रतिफल है। क्योंकि क्रांति (परिवर्तन) की सेनाएं तो गांवों और कारखानों में हैं। क्रांति तो परिश्रमी विचार और परिश्रमी कार्यकर्ताओं से पैदा होती है। लेकिन तक और अब में फर्क ये ही है कि आज हम चारों तरफ से साम्प्रदायिकता, जातीयता, क्षेत्रियता और मीडिया के दुष्प्रचार तथा पूंजीवादी बाजार की ताकतों से घिरे हुए हैं। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)

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