
पर्यटन विभाग ने भी इस मेले को सूचीबद्ध किया है
शैलेश माथुर की रिपोर्ट
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सांभरझील। सांभर प्राचीन नगरी में कई शताब्दियों से नंदीकेश्वर की सवारी प्रमुख धार्मिक आस्था का केंद्र है। नंदीकेश्वर की सवारी होली के दूसरे रोज धूलंडी पर भगवान सूर्य देव मंदिर के सामने स्थित स्थल से विधिवत पूजा अर्चना के बाद दोपहर को रवाना होती है। भगवान शिव के प्रतीक के रूप में नंदीकेश्वर की सवारी का लोग दर्शन करते हैं, बल्कि चरण स्पर्श कर उनसे अपने परिवार की कामना भी करते हैं। धूलंडी से पहले नगर पालिका चौक तक नंदीकेश्वर की सवारी को परंपरागत तरीके से निकाला जाता है, इसके बाद से ही यहां अनेक तरह के धार्मिक आयोजनों का दौर भी शुरू हो जाता है। करीब 15 दिनों तक लगातार इस उत्सव को मनाने के लिए सांभर के अनेक गली मोहल्ले में ढोल और चंग की थाप पर परंपरागत लावण्या गाई जाती है। बच्चे और युवा यहां तक की बुजुर्ग भी ढोल और चंग की थाप पर नाचने गाने से गुरेज नहीं करते हैं। धूलंडी के दिन रंग से होली खेलने के बाद लोग स्नान करते हैं और उसके बाद दोपहर को नंदीकेश्वर की सवारी में शरीक होकर पुष्प और गुलाल की होली से धूमधाम के साथ मनाते हैं और एक दूसरे के गले मिल नांदिया बाबा की जयकारे के साथ उद्घोष भी करते हैं। नंदीकेश्वर की सवारी का रूप धारण करने वाले भगवान शिव के भक्त विजय व्यास और नंदीकेश्वर मेला कमेटी की तमाम पदाधिकारी इससे पहले महाभारत काल के समय से स्थापित देवयानी सरोवर स्थित भगवान जागेश्वर दरबार में शिवलिंग की पूजा अर्चना कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते हैं और नगर की खुशी और तरक्की के लिए भोलेनाथ से प्रार्थना करते हैं। मेला कमेटी के अध्यक्ष और सांभर रत्न कुलदीप व्यास के अथक प्रयासों के बाद राजस्थान सरकार ने इस मेले को भव्य तरीके से आयोजित करवाने के लिए पर्यटन विभाग को भी अधिकृत किया और इसके लिए मेला कमेटी को बजट भी उपलब्ध करवाने की व्यवस्था भी की। नंदीकेश्वर की सवारी का सबसे भव्य आयोजन पुरानी धान मंडी स्थित रामलीला रंगमंच के पास विशाल स्टेज लगाकर हजारों की संख्या में लोग नंदकेश्वर के नृत्य और शिव की भावपूर्ण मुद्रा को देखने के लिए लालायित रहते हैं। नंदीकेश्वर की सवारी का सबसे रोचक पहलू यहां की लंबी गली से निकलने के दौरान होता है, इसके खास दृश्य को देखने और भीड़ को नियंत्रित करने के लिए भारी मात्रा में पुलिस जाता मेला शुरू होने से लेकर संपन्न होने तक कायम रहता है। जानकारों का कहना है कि यह परम्परा चौहान शासक गोगराज के समय से प्रारंभ होने का प्रमाण जयपुर में स्थित म्यूज़ियम में धरोवर के रूप में रखी गई हस्तलिखित पुस्तक चौहानो के राजवंश नामक पुस्तक में विस्तार से इसका वर्णन बताया गया है।