टोंक महोत्सव का जबरदस्त आगाज़

अरशद शाहीन
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टोंक। करीब 207 साल पहले टोक रियासत की विधिवत स्थापना हुई। जिसके पहले नवाब अमीरुल मुल्क नवाब मोहम्मद अमीरुद्‌दोंला मुलक बहादुर हुए। इनको भारतीय इतिहास में एक प्रतिष्ठित यौद्धा के रूप में जाना जाता है। नवाब अमीर खां का जन्म संभल मुरादाबाद सराय तरीन में सन 1768 में हुआ था 1798 में वो टोक आ गए 1806 उनका टोक पर अधिकार हो गया। मराठे, होलकर, सिंधिया राजघरानों के सेनापति (कमांडर-इन चीफ) के रुप में कार्य करते हुए उन्होंने अंगेजों खिलाफ लगभग 457 लड़ाईयों में भाग लिया और उन सभी में विजयी हुए। नवाब अमीरुद्दौला खान साहब के पास 200 तोपो का जखीरा था, वहीं उनकी फौज 60 हजार थी अंग्रेज उनसे खौफ खाते थे यही वजह थी कि अंग्रेजों ने जो क्षेत्र संधि में दिया वो बिखरा एवं काफी दूर-दूर था नवाब अमीरुद्‌दोला खाँ साहब बहादुर भारत के सबसे शुरुआती स्वतंत्रता सेनानियों में से एक है। वे धर्मनिरपेक्ष शासन के प्रतिमान थे इतिहास कारों न उन्हें गंगा जमना सांकृ‌ती के जनकों में से एक बताया है। उनकी धर्मनिरपेक्षता का एक उल्लेखनीय उदाहरण यह है कि उन्होंने अंग्रेजों के साथ संधि पर हस्ताक्षर करने का काम अपने हिन्दू मंत्री लाला निरजनराय साहब को सौपा उनके प्रति नवाब साहब का गहरा विश्वास और सम्मान था, 9 नवम्बर 1817 को अंग्रेजों संधि प्रक्रिया शुरु हुई। 15 नवम्बर 1817 में टोंक की विधिवत स्थापना हुई। राजस्थान राज्य की अन्य रियासतों की भाति टोंक में भी स्थापना दिवस 15 नवम्बर को मनाया जाता है। एक और उल्लेखनीय घटना जब घटी जब नवाब साहब ने सेनापति के रूप कार्यरत थे। भरतपुर के महाराजा ने उनको अपने यहां आमंत्रित किया शहर बाहरी इलाके में महाराज से मिलने के दौरान, उनके एक राजपुरोहित ने उन्हें बताया की आपको निकट भविष्य में नवान की पदवी मिलेगी जब उन्हें यह पदवी मिलेगी । तो उन्होंने राजपुरोहित को टोंक बुलाया और उनसे कहीं के आप टोंक रहेंगे और टोक में जहां भी चाहे आप मन्दिर का निर्माण कर सकते हैं। उन्होंने रघुनाथ जी के नाम से मन्दिर का निर्माण कराया यह मन्दिर टोक के तखता कॉलोनी में बनाया गया था। और आज भी नहीं खड़ा है। इस मन्दिर के निर्माण में नवाब सहाब द्वारा वित्त पोषित किया गया, और राजपुरोहित इस रख रखाव के लिए निरंतर समर्थन का अनुरोध किया तो नवाब साहब ने इसे सुविधा जनक बनाने मंडीकर की स्थापना की मन्दिर का प्रबंधन इसी के द्वारा चलता था। वर्तमान में उसी राजपुरोहित परिवार के वंशज द्वारा इस मन्दिर प्रबंधन किया जा रहा है। इस प्रकार, टोंक के सभी नवाबों ने टोंक की मस्जिदों का समर्थन करने के अलावा सभी मन्दिरों और जैन नसियाओं का भी समर्थन किया है। और आज भी टोक अपनी गंगा जमना संसकृती से पहचाना जाता है। इस अवसर पर अंजुमन (सोसायटी) खानदान-ए-अमीरिया और शहर के गणमान्य लोग उपस्थित रहे।
लोक गायन कला चारबैत में देश मैं टोंक की अलग अलग ही पहचान है चार बैत कला टोंक में 1798 में अमिरूदौला के साथ आई थी। तब से लेकर आज तक इस कला को टोंक के कलाकारों ने जीवित बना रखा है चार वेद लखनऊ रामपुर अमरोहा भोपाल आदि में प्रचलित है टोंक में वर्तमान में करीब 15 16 परिया इस गायन कला को विरासत को संभाले हुए हैं चार वेद में आशा खान सूफियाना देशभक्ति सामाजिक कलाम में भी गाई जाती हैं इसको ढप की थाप पर भी गाया जाता है । यह कल पश्तो में गाई जाती थी। पश्तो भाषा दक्षिण एशिया के पठानों की भाषा थी । अफगानिस्तान तक भारत की सीमाएं थी उस समय फौजी अपने-अपने साथियों में जोश भरने के लिए गाते थे। वर्तमान में चार बैत का मुख्य केंद्र टोंक माना जाता रहा है ।चारबैत कला की टोंक में क ई मोहल्ले की टीमें है ।इस कला को पेश करती हैं जिसमें शाने ऐ शाहकारे हिन्द उस्ताद शब्बीर खान, शाने अमन उस्ताद अखलाक, शाने चमन उस्ताद हबीब नूर, उस्ताद मुकीम, उस्ताद शकिल, शाने हिंद उस्ताद मोहम्मद आसिफ, शाने वतन उस्ताद छममू ख़ान,सितारा ऐ हिंद उस्ताद अयूब खान, शाने फन उस्ताद जहीर खान आदि इस काम को अंज़ाम दे रहे हैं।

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