31 अक्टूबर इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि पर विशेष

लेखक : वेदव्यास
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार व पत्रकार हैं)
daylifenews.in
भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को जानने की पहली पुस्तक जवाहर लाल नेहरू द्वारा लिखे गए पत्रों का वह संकलन है जिसे पिता के पत्र पुत्री के नाम (1931) बहुतों ने पढ़ा है। नेहरू के समय पर उनके बचपन में यह लिखे गए और पत्र इस बात की साक्षी है कि कोई एक पिता अपनी पुत्री को कैसा देखता और बनाना चाहता है। इंदिरा गांधी इसीलिए जवाहर लाल नेहरू का सपना थीं। 19 नवंबर, 1917 को इलाहाबाद में जन्मी इंदिरा गांधी का यह पहला सौभाग्य था कि तब उनकी जन्मस्थली ‘आनंद भवन‘ भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का प्रमुख केंद्र था और महात्मा गांधी तथा उनके दादा मोतीलाल नेहरू की सरपरस्ती में जवाहर लाल नेहरू एक स्वाधीनता सेनानी की भूमिका निभा रहे थे। इंदिरा जब केवल 19 वर्ष की थी उनकी मां कमला नेहरू का देहांत हो गया था। पुत्री और पिता का यह एकाकी रिश्ता बताता है कि इंदिरा में दायित्व बोध कूट-कूटकर भरा था। आगे चलकर इंदिरा का एक युवा कांग्रेस कार्यकर्ता फिरोज गांधी के साथ विवाह हुआ। फिरोज गांधी तब कमला नेहरू की चिकित्सा सेवा के दौरान स्वीट्जरलैंड में इंदिरा के निकट आए थे और जवाहर लाल नेहरू की इच्छा के विपरीत इन दोनों का विवाह था। यह वह समय था जब यूरोप में दूसरे विश्वयुद्ध को लेकर अफरा-तफरी मची हुई थी और भारत में आजादी का आंदोलन गंभीर मोड़ तो ले रहा था और जवाहर लाल नेहरू बार-बार जेल यात्राएं कर रहे थे। ऐसी विकट परिस्थिति में इंदिरा गांधी ने अपना घर बनाया था और संसार बसाया था। तब शायद किसी ने भी नहीं सोचा था कि कांग्रेस में वानर सेना की यह सदस्य एक दिन भारत के इतिहास में प्रियदर्शिनी और प्रधानमंत्री बनकर उभरेंगी। दरअसल, जवाहर लाल नेहरू ही इंदिरा गांधी के मित्र, मार्गदर्शक और प्रेरणा थे।

यह मेरा भी सौभाग्य रहा कि जब नेहरू का 1964 में देहांत हुआ और लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने तो इंदिरा गांधी को उन्होंने सूचना-प्रसारण मंत्री बनाया था और उन्हीं दिनों इंदिरा गांधी ने हमारे आकाशवाणी कलाकार संघ का दिल्ली के नगर निगम सभागार में उद्घाटन किया था। मुझे याद है कि तब अविभाजित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव श्रीपद अमृत डोंगे ने हमें संस्कृति, समाज और जनसंचार माध्यमों की भूमिका पर महत्वपूर्ण उद्बोधन किया था। यह आकाशवाणी में मजदूर आंदोलन का प्रारंभ था। इसी के परिणामस्वरूप इंदिरा गांधी ने पहली बार आकाशवाणी के कलाकारों को अनुबंध की बंधुवा मजदूरी से मुक्ति दिलाकर नियमित केंद्रीय कर्मचारी का दर्जा देने का निर्णय सुनाया था। इसके बाद प्रधानमंत्री बनने के बाद भी इंदिरा गांधी से मुझे कई बार मिलने का सुयोग मिला और आज मैं उस स्मृति को याद करते हुए यही कहना चाहता हूं कि वह एक दृढ़ प्रतिज्ञ और दुस्साहसी महिला थी। उनमें मां की ममता और शासक की कठोरता थी। वह नेहरू की तरह भावुक और स्वप्नदर्शी तो नहीं थी लेकिन देश की एकता, अखंडता और गौरव के प्रति अत्यधिक सजग थी। इंदिरा गांधी का ही साहसिक कदम था कि उन्होंने संविधान में पहली बार लोकतांत्रिक समाजवाद की अवधारणा को स्थापित किया और 1969 में देश की 14 बड़ी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया। यह इंदिरा गांधी का ही साहस था कि कांग्रेस में विघटन का जोखिम उठाकर भी समाजवाद विरोधी तत्वों से कोई समझौता नहीं किया और 1970 में लोकसभा के चुनाव करवाकर अपनी लोकप्रियता को स्थापित किया। राजा-महाराजाओं के प्रीवीयर्स और विशेषाधिकार समाप्त करने का निर्णय लिया। यह तब ‘गरीबी हटाओं‘ के नारे का दौर था। इसके साथ ही पूर्वी पाकिस्तान की ‘बांग्लादेश ‘ के रूप में मुक्ति दिलाने के लिए भी इंदिरा गांधी को ही इतिहास याद करता है तो पहली हरित क्रांति के लिए भी उन्हें भुला नहीं पाता है। पोकरण का पहला परमाणु विस्फोट भी इंदिरा गांधी का ही निर्णय था तो 1975 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में उठे संपूर्ण क्रांति के आंदोलन को आपातकाल लागू करके दबाने का अलोकप्रिय फैसला भी उन्हीं का था।

आज हम जब इंदिरा गांधी के 1917 से 1984 के जीवनकाल को देखते हैं तो लगता है कि आपातकाल का लागू करना और पृथकतावादी खालिस्तान के आंदोलन में स्वर्ण मंदिर में सैनिक कार्रवाई करवाना उनका सबसे कठोर और विवादास्पद फैसला था और उसके मुख्य कारण यही थे कि कांग्रेस के विघटन के बाद देश में सामंती और फासिस्टवादी धार्मिक ताकतों को उन्माद बढ़ गया था और देश में अराजकता का जोर ही चला था। इन दो निर्णयों को छोड़कर इंदिरा गांधी के प्रत्येक फैसलों पर आम जनता कभी विभाजित नहीं हुई और एकजुट बनी रही। इंदिरा गांधी का जो भी तर्क रहा हो और परिस्थितियां रही हों लेकिन हमारी राय में यह दो सवाल आज भी उनके प्रधानमंत्री काल आज भी इस बात का गवाह है कि इंदिरा गांधी भारतीय राजनीति में एक शक्ति और बलिदान का अध्याय रचने वाली महिला है तथा विश्व पटल पर उनकी अमिट छाप आज भी भारत की मान-सम्मान दिलवाने के लिए याद आती है।

मुझे इंदिरा गांधी की याद इसलिए भी आती है कि कांग्रेस में वैचारिक ऊर्जा फूंकने का काम सबसे पहले उन्होंने ही किया था और उन पर कभी कोई भ्रष्टाचार और दुराचार के आरोप जनता ने नहीं लगाए थे। राष्ट्र निर्माण की इस प्रक्रिया में इंदिरा गांधी को आज भी आम लोग आदर से देखते हैं और बलिदान की परंपरा ही मानते हैं। कई समीक्षक मानते हैं कि इंदिरा गांधी कठोर थीं लेकिन हमारा ऐसा मानना है कि इंदिरा गांधी में बुनियादी परिवर्तन की ऐसी नायिका थीं जो समता और न्याय के साथ-साथ विकास को समर्पित थीं। भारतीय राजनीति में षडयंत्रों की राजनीति से सबसे अधिक संघर्ष ही उन्होंने ही किया था और पाकिस्तान को उसकी हैसियत उन्होंने ही बताई थी। भारत को विश्व मानचित्र पर एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय आज उन्हीं को जाता है। यही उनके व्यक्तित्व की विशेषता रही है कि तब अटल बिहारी वाजपेयी भी उन्हें दुर्गा और भवानी कहा करते थे और डॉ. राम मनोहर लोहिया के ‘गूंगी गुड़िया‘ के प्रचार को आम जनता ने नकार दिया था। हमें आज भी लगता है कि जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और आगे राहुल गांधी ने पाकिस्तान का धोखा खाया तो राजीव गांधी ने श्रीलंका के लिट्टे के आतंकवाद को अपना जीवन चुकाया। इसी कारण आज भी कांग्रेस के पास केवल कहने-सुनने को गांधी-नेहरू परिवार के त्याग और बलिदान का इतिहास ही है। यह कटु सत्य भी अलग है कि कांग्रेस आज नेहरू, इंदिरा, राजीव और महात्मा गांधी की प्रेरणा पर कम ध्यान दे रही है और समाजवाद तथा धर्मनिरपेक्षता के महत्व को भी कम समझ रही है। फिर भी इंदिरा गांधी का 31 अक्टूबर, 1984 का बलिदान हमें एक बार पुनः यही याद दिलाता है कि दुनिया के किसी देश में आज तक ऐसी शक्तिशाली और जन कल्याण को समर्पित एक महिला का इतिहास हमारे बीच अन्यत्र नहीं है और यही कारण है कि भारत जैसे महान लोकतंत्र में नेहरू-गांधी परिवार की इस देश सेवा का ही आज चारों तरफ बोलबाला है। (लेखक की प्रकाशित पुस्तक ‘अविस्मरणीय‘ से साभार) (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)