
लेखक : राम भरोस मीणा
लेखक पर्यावरण प्रेमी और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।
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यह कटु सत्य है कि आदिवासी प्रकृति के सच्चे उपासक हैं। यह भी कि आदिवासी वन और वन्यजीवों के सच्चे रक्षक रहते हुए कृषि, पशुपालन के साथ- साथ वन उपज एकत्रित कर अपनी जीविका चलाते रहे हैं। वन उपज पर आधारित आदिवासियों का पशुपालन मुख्य व्यवसाय रहा है। सदियों से वे अपने समुदाय के साथ अधिकांशत: पहाड़ी क्षेत्रों, उनके आस पास रहते आये हैं। आज भी देश में 60 प्रतिशत से अधिक आदिवासी जंगलों, वन भूमि के आस पास बहुतायत में रहते हैं। जंगल की जमीन, जंगल की उपज पर इनका अधिकार रहा है। रीति-रिवाज, वेशभूषा,धार्मिक अनुष्ठान, रहन सहन, कानून- कायदे इनके समुदाय कहें या कबीले द्वारा ही तय होते रहे हैं। यही इनकी सच्ची पहचान भी रही है।
आजादी के बाद ये बहुत कम मात्रा में शिक्षित बने लेकिन जागरूक बने और आधुनिक परिवेश में घुल मिल गए। इसके बावजूद ये अपनी सभ्यता और संस्कृति से दूर नहीं हुए। कुछ तो शहरों और आसपास के कस्बों में भी आकर बस गये। इस सब के बावजूद आज इनकी संख्या मात्र 20 से 25 प्रतिशत तक सिमट कर रह गई है। हकीकत यह है कि आज के दौर में आदिवासी जितना शिक्षित और जागरूक हुआ है, लेकिन उससे अधिक वह अपने हक और अधिकार मांगने की स्थिति में आज भी नहीं आ पाया है। उसकी आर्थिक स्थिति बड़ी दयनीय है।
विकास के इस वैज्ञानिक युग में भी जनजातीय कबीले जो सदियों से पिछड़े, शोषित और विकास की धारा से वंचित रहे हैं और जो प्राकृतिक संसाधनों का आजीवन संरक्षक बन कर रहा है, उस समुदाय को आज उसकी जमीन का अधिग्रहण कर उसे पंगु या ग़ुलाम बनाया जा रहा है। औद्योगिक ईकाईयों, बाजारों , शहरीकरण, टूरिज्म, परिवहन और विकास के नाम उसकी भूमि को कौडियों के भाव उद्योगपतियों, व्यापारियों, कंपनियों को बेचने के लिए मजबूर किया जाता रहा है। सदियों से अपना खून पसीना बहा कर, पहाड़ों के पत्थरों को चुन कर, तैयार किए गये खेत खलिहान बेचने को मजबूर किया जा रहा है। विकास के नाम पर उसकी भूमि को आगामी पच्चास से सौ वर्ष के मद्दे नजर एक सुनियोजित साजिश के तहत आवश्यकता से कहीं अधिक अधिग्रहित की जा रही है। वन अधिकार अधिनियम 2005 में संशोधन के बाद इन्हें बेदखल करने के लिए भूमि अधिग्रहण बिल पास कर इनकी भूमि को अपने कब्जे में कर इन्हें बे मौत मारने जैसा है। जबकि इनका गोचर, सवाई चक, गैर मुमकिन पहाड़ों और काश्त भूमि पर मालिकाना हक और अधिकार रहा है। विडम्बना देखिए कि आज जमीन का वही मालिक अपना सब कुछ छोड़ कर मजदूर, गुलाम बनने को मजबूर है। सरकार कानून का भय दिखाकर, सस्ते दामों पर इनकी जमीन खरीद कर उद्योगपतियों , व्यापारियों का भला करने में कोई कोर-कसर नहीं कर रही है। यही नहीं सरकार के अलावा भूमाफिया अफ़सरशाहों, राजनेताओं की मिलीभगत से अपनी दबंगई से आदिवासियों की जमीन औने- पौने दामों में खरीद कर उन्हें बेदखल कर रहे हैं। यह शोषण तो दशकों से जारी है। इस तरह उनको बेघर कर कमजोर करने की एक सुनियोजित साजिश आज भी जारी है।
आज वह चाहे हिमालय क्षेत्र में बढ़ते ट्यूरिज्म की बात हो, उत्तरी पूर्वी राज्यों आसाम, मणिपुर, नागालैंड, मेघालय ,मिजोरम, सिक्किम के विकास की बात हो, दक्षिणी भारत में कर्नाटक, आंध्रप्रदेश हो,तमिलनाडु हो या झारखंड, महाराष्ट्र में स्थापित औधोगिकीकरण, खनन की बात हो,या फिर मध्यप्रदेश, गुजरात, बिहार, उत्तर प्रदेश,राजस्थान की बात हो, इन सभी राज्यों में विकास के नाम पर सर्वाधिक भूमि का अधिग्रहण आदिवासियों अथवा पिछड़े क्षेत्रों में किया जा रहा है, जहां प्राकृतिक सम्पदा प्रचुर मात्रा में संरक्षित, सुरक्षित है। असलियत यह है कि विकास के इस दौर में आदिवासी अपने अस्तित्व को बचाने में नाकामयाब महसूस कर रहा है।
जरूरत इस बात की है कि आज विकास के इस दौर में उपेक्षित आदिवासियों को विकास नीतियों में सहभागी बनाया जाये। इसके साथ आदिवासियों के क्षेत्रों, कबीलों, समुदायों के शैक्षिक, आर्थिक, सामाजिक विकास के साथ, इन्हें राजकीय संस्थानों में प्रवेश दिया जाए। देश की राजनीति में सहभागी बनाया जाये। इनकी प्राथमिक आवश्यकता रोटी ,कपड़ा और मकान की है जिसकी व्यवस्था की जाए। प्राकृतिक संसाधनों को सुरक्षित रखने के लिए इन्हें बेदखल ना किया जाए। इन का बौद्धिक विकास किया जाए ना कि इन्हें शोषण का शिकार बनाया जाए, यातना दी जाए या फिर बंधुआ मजदूर अथवा ग़ुलाम बनाया जाए। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)