विकास, धर्म और उत्सव के नाम पर बढ़ता प्रदूषण – अब सांसों में हवा नहीं जहर…!

“पापा… मुझे भी जीने दो!”
लेखक : संजय राणा
लेखक पर्यावरण विषयक मामलों के जानकार और ख्यात प्रकृति प्रेमी हैं।
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आजकल विकास, धर्म और उत्सवों के नाम पर बढ़ता प्रदूषण जानलेवा साबित हो रहा है। विगत 15 से 20 वर्षो से वर्षा ॠतु के बाद जैसे ही सर्दियों का मौसम आता है, वैसे ही हमारे देश में वायु प्रदूषण की गंभीर समस्या उत्पन्न हो जाती है। व्यवस्थाएं और समाज लाचार दिखलाई देने लगता है, न्यायपालिका भी नींद से जागती हुई दिखलाई देने लगती है और सत्ताधीश आरोप -प्रत्यारोप के खेल में बढ़-चढ़कर कर अपना दामन बचाने में लग जाते हैं। हकीकत में
वर्तमान समय में वायु प्रदूषण जीवन के लिये खतरनाक बनता जा रहा है, इसके लिये कोई एक कारक जिम्मेदार नहीं है बल्कि हर कोई जिम्मेदार है। जिसमें
परिवहन – वाहन 28 से 40 प्रतिशत के मध्य,
उद्योग जैसे पावर-प्लांट, फैक्ट्री, ईंट भट्टे आदि 22 से 30 प्रतिशत के मध्य, धूल, निर्माण गतिविधियां जैसे सड़क, मकान आदि 17 से 38 प्रतिशत के मध्य, घरेलू, आवासीय व अन्य स्रोत 08 से 11 प्रतिशत के मध्य, कृषि – 04 से 07 प्रतिशत
का योगदान है। मगर बदनाम सबसे अधिक कृषि को ही किया जाता है। जबकि वायु प्रदूषण से पृथ्वी का हर अंग प्रभावित है।
यहां एक मासूम सवाल काबिले गौर है,वह यह कि-“पापा… मुझे भी जीने दो!” — यह आवाज़ अब हर उस बच्चे की है जो हर सुबह धुंध और धुएं में सूरज ढूंढ़ता है। यह कोई फिल्मी संवाद नहीं, बल्कि हमारी सांसों की एक कड़वी सच्चाई है। भारत के महानगरों से लेकर गांवों में आज हवा इतनी प्रदूषित हो चुकी है कि सांस लेना ही जोखिम बन गया है।
ऐसा लगता है कि भारत की राजधानी तो प्रदूषण की राजधानी बन ही गयी है,समूचा देश प्रदूषण के मामले में कीर्तिमान बनाकर दुनिया में अपने झंडे गाड़ रहा है। वर्ल्ड एयर क्वालिटी रिपोर्ट 2025 बताती है कि दुनिया के शीर्ष 10 सबसे प्रदूषित शहरों में भारत के 3 शहर —दिल्ली (दूसरा स्थान), गाज़ियाबाद (पाँचवाँ) और भिवाड़ी (सातवाँ स्थान) शामिल हैं, जबकि 2024 में यह संख्या 6 थी। यानी खतरा कम नहीं हुआ, बस स्थिर हो गया है । बस यही सबसे बड़ा खतरा है।

त्योहारों की खुशियाँ या प्रदूषण की परतें? अब सवाल यह है कि हम त्यौहार की खुशियां मनायें या फिर प्रदूषण से अपनी जान बचाने की जुगत में लगे रहें। हर साल दीपावली पर जब आसमान रोशनी से भर जाता है, तो कुछ ही घंटों में वही आसमान धुएँ और ज़हर से ढक जाता है। पटाखों का धुआँ हवा में मिलकर पी एम 2.5 और पी एम 10 का स्तर कई गुना बढ़ा देता है। दिल्ली और एनसीआर में दीपावली के अगले दिन हवा का ए क्यू आई अक्सर 500 से ऊपर पहुँच जाता है जो “गंभीर” श्रेणी मानी जाती है।सिर्फ दीपावली ही नहीं, गणेश और दुर्गा विसर्जन के दौरान भी देश की नदियां, तालाब, नहरें और अन्य जल संरचनायें प्लास्टर आफ पेरिस से बनी मूर्तियों, प्लास्टिक, पूजा सामग्री आदि से पट जाती हैं। दशहरा पर रावण-दहन से निकलने वाला धुआँ,
होली पर रासायनिक रंगों का जल और मिट्टी में मिलना,छठ पूजा में नदियों में प्लास्टिक और कृत्रिम सजावट की बाढ़,ईद पर खुले में जानवरों के अवशेषों का निस्तारण, और क्रिसमस व नववर्ष पर अत्यधिक सजावट व आतिशबाज़ी आदि ये सभी मिलकर धार्मिक उत्सवी माहौल में पर्यावरणीय संवेदनशीलता को पीछे छोड़ देते हैं।
इसमें दो राय नहीं कि यह सब भावनाओं से नहीं, बल्कि अज्ञान और असंवेदनशीलता से उपजा व्यवहार है। प्रकृति स्वयं भी एक “धर्म” है और उसका अपमान करना किसी भी पूजा या पर्व का उद्देश्य नहीं हो सकता। इसका
सबसे बड़ा असर बच्चों पर पड़ता है। फेफड़ों की वृद्धि रुक जाती है, मस्तिष्क का विकास प्रभावित होता है और प्रतिरक्षा तंत्र कमजोर पड़ जाता है सो अलग। डॉक्टरों का कहना है कि प्रदूषित क्षेत्रों के बच्चे औसतन 4 वर्ष पहले बूढ़े फेफड़ों के साथ जी रहे हैं। हर त्योहार के बाद अस्पतालों में अस्थमा और एलर्जी के केस बढ़ जाते हैं। यही नहीं
महिलाओं और गर्भस्थ शिशुओं पर भी संकट गहरा जाता है। गर्भवती महिलाएँ प्रदूषित हवा के कारण सबसे अधिक जोखिम में हैं। समय से पहले जन्म, कम वज़न और शिशुओं में जन्मजात दोष — ये अब आम होते जा रहे हैं। प्रदूषित हवा और रासायनिक धूल हार्मोनल असंतुलन और त्वचा रोग भी बढ़ा रही है।
पुरुषों और बुज़ुर्गों पर असर सर्वाधिक पड़ रहा है।पुरुषों में हृदय रोग, उच्च रक्तचाप और थकावट बढ़ रही है। प्रदूषकों के लंबे संपर्क से प्रजनन क्षमता भी प्रभावित हो रही है। बुज़ुर्गों के लिए यह हवा जानलेवा साबित हो रही है।
भारत में वायु प्रदूषण से होने वाली वार्षिक मौतों के कुछ प्रमुख आंकड़े इस प्रकार हैं जो हालात की भयावहता को जाहिर करते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, भारत में 2016 में बाहरी (आम्बियेंट) वायु प्रदूषण के कारण लगभग 1,795,181 मौतें हुई थीं।
एक अध्ययन के अनुसार, 2022 में केवल मानव कर्म (मानव-स्रष्ट) वायु प्रदूषण (विशेष रूप से PM₂.₅) के कारण भारत में लगभग 1.718 मिलियन (17.18 लाख) मौतें हुईं थीं। 2023 के लिए एक रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में वायु-प्रदूषण-संबंधित मौतें 2 मिलियन के करीब थीं।
असलियत में अब प्रदूषण से जीव जगत ही नहीं, धरती भी कराह उठी है। देखा जाये तो प्रदूषण ने केवल इंसानों को ही नहीं, धरती के हर जीव को बीमार कर दिया है।
पेड़ों की पत्तियाँ झुलस रही हैं, खेतों की फसलें घट रही हैं, नदियाँ विषैली हो रही हैं, पक्षियों की चहचहाहट कम हो रही है। अम्लीय वर्षा मिट्टी की उर्वरता को नष्ट कर रही है और वनों में जैव विविधता घट रही है। आँकड़ों पर नजर डालें तो हालात की गंभीरता से सामना होता है और वे हमें एक सख्त चेतावनी देते प्रतीत होते हैं। यह कड़वी सच्चाई है कि
भारत के 60% शहरी क्षेत्र “खराब” या “बहुत खराब” वायु गुणवत्ता वाले हैं। दिल्ली, पटना, लखनऊ, कानपुर, गाज़ियाबाद, फरीदाबाद — ये सभी शहर विश्व के सबसे प्रदूषित क्षेत्रों में गिने जाते हैं। पी एम 2.5 का स्तर डब्ल्यू एच ओ के मानक से 8 से10 गुना अधिक है। यह अब सिर्फ पर्यावरण नहीं, बल्कि जनस्वास्थ्य का राष्ट्रीय संकट बन चुका है।
समाधान की दिशा में हमें परंपरा के साथ पर्यावरण का भी ध्यान रखना होगा। अब समय आ गया है कि हम अपने धार्मिक और सांस्कृतिक उत्सवों को पर्यावरण-मित्र बनाएं। दीपावली पर पटाखों की जगह दीये जलाएं, बच्चों को हवा नहीं, उम्मीद दें। दशहरा पर पर्यावरण-मित्र रावण दहन या डिजिटल प्रतीकात्मक आयोजन अपनाएं। छठ, गणेशोत्सव व अन्य पर्वों में प्लास्टिक-मुक्त पूजा सामग्री का प्रयोग करें। होली पर प्राकृतिक रंगों से खेलें, जल की बचत करें। ईद पर पशुओं की कुर्बानी की जगह अपनी बुराइयों की बलि दें। हर त्योहार को “प्रकृति उत्सव” बनाएं, न कि प्रदूषण का बहाना।
जब कोई छोटा बच्चा धुएँ से भरे आकाश की ओर देखता है और कहता है कि-“पापा, अब दीपावली से पहले सूरज क्यों गायब हो जाता है?”तो यह केवल सवाल नहीं, चेतावनी है। अगर हमने अब भी कुछ नहीं बदला, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमसे पूछेंगी कि—“जब प्रदूषण से ही मरने के लिए पैदा किया था, तो हमें क्यों जन्म दिया?”
अब वक्त है इस पुकार को सुनने का — “पापा… मुझे भी जीने दो!”
आओ प्रकृति की ओर लौटें।
(लेखक का अपना अध्य्यनवन अपने विचार है)

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